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देश की हत्या

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5339
आईएसबीएन :0000

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एक राजनीतिक उपन्यास...

Desh Ki Hatya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सम्पादकीय

उपन्यासकार गुरुदत्त का जन्म जिस काल और जिस प्रदेश में हुआ उस काल में भारत के राजनीतिक क्षितिज पर बहुत कुछ विचित्र घटनाएँ घटित होती रही हैं। गुरुदत्त जी इसके प्रत्यक्षदृष्टा ही नहीं रहे अपितु यथासमय वे उसमें लिप्त भी रहे हैं। जिन लोगों ने उनके प्रथम दो उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ और ‘पथिक’ को पढ़ने के उपरान्त उसी श्रृंखला के उसके बाद के उपन्यासों को पढ़ा है उनमें अधिकांश ने यह मत व्यक्त किया है कि उपन्यासकार आरम्भ में गांधीवादी था, किंतु शनैः-शनैः वह गांधीवादी से निराश होकर हिन्दुत्ववादी हो गया है।

जिस प्रकार लेखक का अपना दृष्टिकोण होता है उसी प्रकार पाठक और समीक्षक का भी अपना दृष्टिकोण होता है। पाठक अथवा समीक्षक अपने दृष्टिकोण से उपन्यासकार की कृतियों की समीक्षा करता है। उनमें कितना यथार्थ होता है, यह विचार करने की बात है। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति की विचाधारा का क्रमशः विकास होता रहता है। यदि हमारे उपन्यासकार गुरुदत्त के विचारों में विकास हुआ तो वह प्रगतिशीलता का ही लक्षण है। किन्तु हम उन पाठकों और समीक्षकों के इस मत से सहमत नहीं कि आरम्भ का गांधीवादी गुरुदत्त कालान्तर में गांधी-विरोधी रचनाएँ लिखने लगा। इस दृष्टि से गुरुदत्त की विचारधारा में कहीं भी परिवर्तन नहीं दिखाई दिया गांधी के विषय में जो धारणा उपन्यास ने अपने प्रारम्भिक उपन्यासों में व्यक्त की है, क्रमशः उसकी पुष्टि ही वह अपने अवान्तरकालीन उपन्यासों में करता रहा है।
जैसा कि हमने कहा है कि गुरुदत्त प्रत्यक्षदृष्टा रहे हैं। उन्होंने सन् 1921 के असहयोग आन्दोलन से लेकर सन् 1948 में महात्मा गांधी की हत्या तक की परिस्थितियों का साक्षात् अध्ययन किया है। उस काल के सभी प्रकार के संघर्षों को न केवल उन्होंने अपनी आँखों से देखा है अपितु अंग्रेजों के दमनचक्र, अत्याचारों और अनीतिपूर्ण आचरण को स्वयं गर्मदल के सदस्य के रुप में अनुभव भी किया है। अतः लेखक ने घटनाओं के तारतम्य का निष्पक्ष चित्रण करते हुए पाठक पर उसके स्वाभाविक प्रभाव तथा अपने मन की प्रतिक्रियाओं का अंकन किया है। ‘स्वाधीनता के पथ पर’, ‘पथिक’, ‘स्वराज्यदान’, ‘दासता के नये रूप’, ‘विश्वासघात और ‘देश की हत्या’ को जो पाठक पढ़ेगा उसको यह सब स्वयं स्पष्ट हो जाएगा।

श्री गुरुदत्त के उपन्यासों को पढ़कर उनका पाठक यह सहज ही अनुमान लगा लेता है कि राजनीति के क्षेत्र में वे राष्ट्रीय विचारधारा के लेखक हैं। सच्चे राष्ट्रवादी की भाँति वे देश के कल्याण की इच्छा और इस मार्ग से चलते विघ्न-संतोषियों पर रोष व्यक्त करते हैं। लेखक के राष्ट्रीय विचारों को ईर्ष्यावश साम्प्रदायिक कहने वाले सम्भवतया यह भूल जाते हैं कि उनके किसी भी उपन्यास में कहीं भी किसी सम्प्रदाय विशेष की उन्नति या उत्तमता की चर्चा तथा अन्य सम्प्रदायों का विरोध नहीं किया गया है। हाँ, इसमें कोई सन्देह नहीं कि अपनी कृतियों में वे स्थान-स्थान पर राष्ट्रवादियों के लिए हिन्दुस्तानी अथवा भारतीय अथवा ‘हिन्दू’ शब्द का प्रयोग करते हैं। यह सम्भव है कि भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार, विशेषतया कांग्रेसी और कम्युनिस्ट ‘हिन्दू’ शब्द को इसलिए साम्प्रदायिक मानते हों कि कहीं इससे मुसलमान रुष्ट न हो जाएँ। वास्तव में हमारा लेखक तो हिन्दुत्व और भारतीयता को सदा पर्यायवाची ही मानता आया है।

इसके साथ ही इस उपन्यास में कांग्रेसी नेताओं और कांग्रेस सरकार के कृत्यों पर भी विशेष प्रकाश डाला गया है। यह सब प्रसंगवशात् नहीं अपितु कथानक की माँग को देखकर यह विशद वर्णन स्वाभाविक ही था। इस काल पर जितने भी उपन्यास लिखे गये हैं, लेखक के दृष्टिकोण में अन्तर होने के कारण नेताओं तथा दल की राजनीति पर भी विभिन्न प्रकार की आलोचना हुई हो किन्तु निष्पक्ष लेखक अथवा उपन्यासकार तथ्यों की अनदेखी नहीं कर सकता। यही गुरुदत्त जी ने अपने इस उपन्यास में किया है।

भूमिका

‘देश की हत्या’ 1947 में जो देश-विभाजन हुआ, उसकी पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास है। इस प्रकार भारतवर्ष में गांधी-युग की पृष्ठभूमि पर लिखे अपने उपन्यासों की श्रृंखला में यह अन्तिम कड़ी है। ‘स्वाधीनता के पथ पर’, ‘पथिक’, ‘स्वराज्य-दान’ और ‘विश्वासघात’ पहले ही पाठकों के सम्मुख आ चुके हैं। उसी क्रम में इस उपन्यास को लिखकर देश के इतिहास को इस युग के अन्त तक लिख दिया गया है।
इन उपन्यासों में उस युग की सम्पूर्ण घटनाओं को नहीं लिखा जा सका। फिर भी, जो-जो ऐतिहासिक तथ्य लिखे हैं, वे सब सत्य हैं। तत्कालीन इतिहास के साथ-साथ ही ये उपन्यास चलते हैं। उपन्यास विवेचनात्मक हैं और विवेचना अपनी है। कोई अन्य व्यक्ति इन्हीं ऐतिहासिक घटनाओं के अर्थ भिन्न ढंग से भी लगा सकता है। इन अर्थों का विश्लेषण पाठक स्वयं करने का यत्न करें, तो ठीक रहेगा।

इन सब उपन्यासों को क्रमानुसार पढ़ने से कुछ पाठकों को ऐसा भास हुआ है कि लेखक के विचार बदल गए हैं। इस कारण ‘स्वाधीनता के पथ पर’ के गांधीवाद का प्रशंसक ‘देश की हत्या’ में गांधीवाद का निन्दक हो गया प्रतीत होता है। किन्तु ऐसा नहीं है। लेखक ने इतिहास के तारतम्य को ज्यों-का-त्यों रखते हुए, उसके जनता पर प्रभाव को निष्पक्ष भाव से अंकित करते हुए अपने मन पर उत्पन्न हुए भावों को भी लिखा है। यह यत्न किया गया है कि गांधीवाद के समर्थकों का दृष्टिकोण भी यथासम्भव रख दिया जाए। अतएव विचारों में विषमता भासित हो सकती है; वास्तव में ऐसा नहीं है।

राष्ट्र किसी देश के उन नागरिकों के समूह को कहते हैं, जो देश के हित में अपना हित समझते हैं। कभी-कभी देश में ऐसा समूह बहुत छोटा रह जाता है। वे लोग, जो अपने निजी स्वार्थ को सर्वोपरि मानते हैं, बहुत भारी संख्या में उत्पन्न हो जाते हैं, तब देश को हानि पहुँचती है और देश पराधीनता की श्रृंखलाओं में बँध जाता है। राष्ट्र की उन्नति अर्थात् देश में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि होना, जो देश के सामूहिक हित को व्यक्ति के हितों से ऊपर समझते हैं, अत्यावश्यक है। इसी देश में सुख-शान्ति, ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है।

महात्मा गांधी जी की हिन्दू-मुस्लिम एकता की विधि दूषित थी और उक्त लक्ष्य के विरुद्ध बैठी थी। उसका परिणाम 1946-47 के प्रचण्ड हत्याकाण्डों में प्रकट हुआ और अन्त में देश-विभाजन हुआ, जिसके दुःखद परिणाम होने की सम्भावना तब तक बनी रहेगी, जब तक यह विभाजन स्थिर रहेगा। जब-जब भी देश का द्वार गांधार तथा कामभोज (सिन्धु पार का सीमा प्रदेश और अफगानिस्तान) देश के हितेच्छुओं के हाथ में रहा है, तब ही देश सुरक्षित और शान्तिमय रह सका है। जिस राजा अथवा सम्राट ने इस तथ्य को समझा है, उसे अपना अधिकार दो प्रदेशों पर रखने का यत्न किया है। 1919 से 1947 तक की कांग्रेस-नीति ने दोनों प्रदेश भारत के हित के विपरीत जाति के हाथों में दे दिए हैं। उसी नीति से अब कश्मीर को उन लोगों के हाथों में देने का प्रयोजन किया जा रहा है, जो देश के हित का चिन्तन भी नहीं कर सकते। इस दूषित नीति का स्पष्टीकरण ही ‘विश्वासघात’ और ‘देश की हत्या’ में करने का यत्न किया गया है।

यह सम्भव है कि जनता के कुछ लोग लेखक के परिणामों को स्वीकर न करते हों। इसी कारण इन पुस्तकों का लिखना आवश्यक हो गया है। स्वराज्य-प्राप्ति के पश्चात् भारत के शासक-दल ने घटनाओं को विकृत करने, उन घटनाओं में अपने उत्तरदायित्व को दूसरों के गले मढ़ने और घटनाओं को छिपाने का यत्न आरम्भ कर दिया है, इस कारण भी यह दूसरा दृष्टिकोण उपस्थित करना आवश्यक हो गया है।

देश-विभाजन ठीक नहीं माना जा सकता। परन्तु यह क्यों हुआ, किसने किया और कैसे इसको मिटाया जा सकता है ? ये प्रश्न देश के सम्मुख हैं और तब तक रहेंगे, जब तक यह मिट नहीं जाता। सामयिक चिन्ताओं में ग्रस्त लोग भले ही नाक की नोक के आगे न देख सकें, परन्तु दूर-दृष्टि रखने वाले तो इन प्रश्नों पर विचार करेंगे ही। उनको रोकना असम्भव है।
1947 की भयंकर घटनाओं की पृष्ठभूमि पर आधारित यह उपन्यास ऐतिहासिक व्यक्तियों तथा तथ्यों को छोड़, मुख्यतया काल्पनिक ही है। इसके लिए घटनाओं का ज्ञान अनेकानेक निर्वासित भाइयों के वक्तव्यों, समय के समाचार-पत्रों तथा श्री गोपालदास की खोसला की ‘स्टर्न रैकनिंग’ और श्री अमरनाथ बाली की ‘नो इट कैन बी टोल्ड’ नामक अंग्रेजी की पुस्तकों के आधार पर संचित किया गया है।
तदपि है तो यह उपन्यास ही।

गुरुदत्त

पाप का प्रायश्चित

राजनीति भी एक पागलपन है। जिस पर यह सवार हो जाता है, उसको घर-घाट की सुध-बुध नहीं रहती। प्रातः उठ आँखें मलते हुए, नींद खुलने के साथ समाचारों के शीर्षक पढ़ना और शौचालय में बैठे-बैठे अथवा स्नान करते समय देश-भर की चिन्ता करते रहना, चाय व प्रातः का अल्पाहार करते समय सामने बैठे साथी से अपने मन में संचित उद्गार प्रकट करना, चलते-फिरते, बस अथवा रेल में यात्रा करते समय ताँगे-टमटम में आते-जाते राजनीति पर बात छेड़ देना, इस पागलपन के कुछ लक्षण हैं। ऐसा माना जाता है कि इस चिन्तन से देश में उन्नति हो रही है।
इससे देशोन्नति होती है अथवा नहीं, यह तो कहा नहीं जा सकता। पर यह तो सत्य ही है कि समाचार-पत्र छापने वालों का बोलबाला होता रहता है। कोई कथा किसी समाचार पत्र में मुद्रित होने पर पढ़े-लिखों के मुख द्वारा जनता तक पहुँच जाती है और समाचार-पत्र को प्रमाण मानकर कथा को सत्य मानना आवश्यक हो जाता है। जो न माने उसको मूर्ख कहा जाता है।

पंजाब-हावड़ा मेल के सेकण्ड क्लास के डिब्बे में यात्रा करते हुए दो यात्रियों में ‘ट्रिब्यून’ समाचार-पत्र में छपे एक समाचार पर ऐसी ही परिस्थिति उत्पन्न हो गई। एक भारी शरीर के खद्दरधारी व्यक्ति को साथ वाली सीट पर बैठे यात्री ने कहा, ‘‘देखिए ! देखिए ! ! ये कांग्रेस वाले क्या अनर्थ कर रहे हैं ?’’
वह खद्दरधारी अपनी निज की समस्याओं पर विचार करने में इतना लीन था कि पहले तो उसने अपने साथी यात्री के कथन को सुना ही नहीं, परन्तु जब उसने अपने कथन को दुहराया तो उस खद्दरधारी का ध्यान उसकी ओर गया और उसने झुककर समाचार-पत्र को देखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ है ?’’
‘‘कांग्रेस ने लाला जीवनलाल ठेकेदार के लड़के को विधानसभा का मैम्बर चुन लिया है।’’
‘‘तो इसमें क्या अनर्थ हुआ है ?’’ खद्दरधारी ने मुस्कराकर पूछा।
साथी यात्री ने कहा, ‘‘जी आप नहीं जानते। जीवनलाल ठेकेदारी करने से अंग्रेजी सरकार का भक्त है और उसका लड़का चेतनानन्द तो आधा मुसलमान है। वह पिछले वर्ष ही एक मुसलमान लड़की से विवाह कर, कलकत्ता चला गया था।’’
‘‘तो इससे क्या हुआ ? कांग्रेस तो हिन्दू-मुसलमान दोनों की प्रतिनिधि संस्था है न ? यदि उसने किसी अर्द्ध-मुसलमान को चुनकर भेजा है तो पूरे मुसलमान को भेजने से तो ठीक ही किया है ?’’

‘‘इससे तो मुसलमान को भेज देना अच्छा रहता। वह वहाँ जाकर मुसलमानों के पक्ष में राय देता तो समझने वाले समझ तो जाते। अब तो यह नाम-मात्र का हिन्दू, बात तो करेगा मुसलमानों की और समझा जावेगा कि एक हिन्दू ऐसा कह रहा है। इस कारण यह माना जाएगा कि इसका कहना हिन्दुओं के पक्ष में ही है। यह तो ‘डबल बिट्रेयल’ होगा। एक तो मुसलमानों की अनुचित माँगों को सहायता मिलेगी और दूसरा यह समझा जावेगा कि हिन्दुओं द्वारा चुना हुआ आदमी जब ऐसा कहता है, तो मुसलमानों की माँग न केवल युक्ति-युक्त है, प्रत्युत हिन्दुओं द्वारा भी मानी गई है।’’
उस खद्दरधारी ने कहा, ‘‘पर शेखुपुरा के हिन्दुओं ने उसको चुनकर जो भेजा है। यह तो पहले उनको समझ लेना चाहिए था।’’

‘‘अजी खाक समझते। वह तो घूम-घूमकर लोगों को व्याख्यान देता रहा था कि कांग्रेस पाकिस्तान बनने के हक में नहीं है और वह हिन्दुओं के अधिकारों की रक्षा करेगी।
‘‘उसके मुकाबले में कोई खड़ा ही नहीं हुआ और वह बिना मुकाबले के निर्वाचित हो गया। ज्यों ही वह चुना गया कि वह अपनी हिंदू मंगेतर को छोड़कर एक मुसलमान कांग्रेसी लड़की से विवाह कर, कलकत्ता भाग गया और वहाँ मुस्लिम-लीगी सरकार का पब्लिसिटी अफसर बन, उस सरकार की सहायता करता रहा।
‘‘बंगाल की मुस्लिम-लीगी सरकार ने डायरैक्ट ऐक्शन के दिनों में मुसलमानों की सेवा के लिए उसको एक सार्टिफिकेट और सोने का तमगा दिया है।
‘‘अब वही मुस्लिम-लीगी अफसर कांग्रेस का प्रतिनिधि बनकर देश का विधान बनाने जा रहा है।’’

इस कथा को सुनकर वह खद्दरधारी खिलखिलाकर हँस पड़ा और खिड़की से बाहर पीछे को छूटते हुए पेड़ों को देखने लगा।
जब उसके साथी ने देखा कि उस खद्दरधारी ने उसकी कथा को हँसी-मजाक में उड़ा दिया है, तो वह पहले तो विस्मय में उसका मुख देखता रहा, पश्चात् समाचार-पत्र पढ़ने लगा। इससे उसके मन को संतोष नहीं हुआ। एक-दो समाचार पढ़कर उसने पुनः उस खद्दरधारी को सम्बोधित कर कहा, ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि कलकत्ता तथा नोआखाली से कहीं अधिक विनाशकारी घटनाएँ पंजाब, सीमा प्रान्त और सिन्ध में होने वाली हैं। यही विचार करके मैं अपने परिवार को पंजाब से निकालकर कहीं दूर ले जाने के लिए आया हूँ।’’

‘‘कहाँ के रहने वाले हैं आप ?’’
‘‘मैं जिला रावलपिण्डी के गूजर खाँ कस्बे का रहने वाला हूँ।’’
‘‘समाचार-पत्रों के अधिक पढ़ने का यह परिणाम है कि आपके मन में इतना भय समा गया है।’’
वह आदमी एक-दो क्षण तक अपने साथी यात्री का मुख देखता रहा। पश्चात् कुछ विचारकर कहने लगा, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है। समाचार-पत्रों में तो यह लिखा जा रहा है कि पाकिस्तान नहीं बन सकता; बन जाए तो चल नहीं सकता; चल जाए तो उसमें हिन्दू रह सकेंगे; आज दुनिया में मत-मतान्तरों के आधार पर राज्य चल नहीं सकते। यह सब कुछ समाचार-पत्रों में लिखा रहने पर भी केवल एक भ्रम है। मैं कलकत्ते में था, जब डायरैक्ट ऐक्शन आरम्भ हुआ था और जो कुछ मैंने वहाँ देखा था, उससे कई गुना अधिक पंजाब में, विशेष रूप से पश्चिमी पंजाब में, होने जा रहा है। समाचार-पत्रों में तो ऐसा नहीं लिखा होता।’’

‘‘तो क्या समाचार-पत्रों में मिथ्या बातें छपती हैं ?’’
‘‘उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। अपनी बुद्धि से काम लेना आवश्यक है।’’
‘‘पर चेतनान्द के विषय में तो आपने अपनी बुद्धि से काम लिया प्रतीत नहीं होता।’’
‘‘बुद्धि से ही तो कह रहा हूँ। समाचार-पत्रों में तो उसको महान् देश-भक्त, पंजाब का नेता, शेरे पंजाब इत्यादि नामों से सम्बोधित किया जाता है।’’
‘‘आप उनको ऐसा नहीं समझते ?’’
अब उस आदमी ने पुनः ध्यानपूर्वक अपने खद्दरधारी साथी की ओर देखा और कहा, ‘‘वह नेता तो है पर देश-भक्त नहीं; वह शेरे पंजाब भी हो सकता है, परन्तु हिन्दू-भक्षक शेर ही।’’
‘‘आप बहुत मेहनत से गुण-अवगुण की तुलना कर रहे हैं।’’
‘‘इसी कारण मैं ऐसे परिणाम पर पहुँच रहा हूँ, जिस पर ये समाचार-पत्र हमको ले जाना नहीं चाहते। वे तो चाहते हैं कि हिन्दू लोग अपना आचार-व्यवहार छोड़कर मुसलमानों में मिल जाएँ, जिससे कांग्रेस का नेतृत्व बना रहे। बुद्धि कहती है कि इसमें न देश का कल्याण है और न ही किसी व्यक्ति का।’’

‘‘यह माना, पर आप चेतनानन्द पर इतना क्यों पिल पड़े हैं ? उस बेचारे ने कौन-सा पाप किया है ? क्या एक हिन्दू का किसी मुसलमान लड़की से विवाह करना पाप है ?’’
‘‘यदि मुसलमान लड़की से विवाह कर, वह देश के हित में सम्मिलित रहता, तब तो उसका ऐसा करना अति श्लाघनीय माना जाता; परन्तु परम्परा से चल रहे रिवाज के अनुसार वह बीवी के साथ ही मुस्लिम-लीगी हो गया। मैं तो यह कह रहा था कि उसके ऐसा करने पर भी हमारा कहने का अधिकार नहीं है।
हमारी आपत्ति तो उसके, अभी भी, कांग्रेस का आदमी मान प्रतिनिधि चुने जाने पर है।’’
खद्दरधारी इस बार हँसा नहीं, प्रत्युत गम्भीर हो गया। उसने कहा, ‘‘आपके कहने में तथ्य है। मैं आपको एक बात बताऊँ ?’’
‘‘क्या ?’’
‘‘वह चेतनानन्द मैं ही हूँ। कलकत्ता में अपनी बीवी से मिलकर आ रहा हूँ। वह मेरे साथ आने को तैयार नहीं हुई और मैं अकेला ही लौट रहा हूँ।’’

वह ट्रिब्यून समाचार-पत्र पढ़ने वाला व्यक्ति अवाक् रह गया ! उसने चेतनानन्द को खरी-खोटी सुनाई थीं और अब उसको अपने सामने बैठा देख, लज्जा अनुभव करने लगा। वह खद्दरधारी उसकी परेशानी देख खिलखिलाकर हँस पड़ा और कहने लगा, ‘‘इसमें घबराने की कोई बात नहीं। आपने तो अपने मन की बात सत्य-सत्य कह दी है। आपका अनुमान उन बातों पर बना है, जो आपको मालूम हैं। वे सब-की-सब ठीक नहीं। इस कारण कुछ बातों में आपका अनुमान गलत प्रतीत होता है।’’

‘‘क्षमा करें, यदि मुझको मालूम होता कि आप ही चेतनानन्द हैं तो मैं आपके विषय में ऐसा न कहता। मन में चाहे कुछ हो, शिष्टाचार तो निभाना ही पड़ता है।’’
‘‘तब तो और भी बुरी बात हो जाती। बात आपके मन में बैठी रह जाती और आप व्यर्थ की चापलूसी करने के अपराधी हो जाते।’’
‘‘मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।’’
‘‘क्षमा माँगने की कोई बात भी तो हो ? भ्रममूलक सुचनाओं के आधार पर बने हुए विचार ही तो हैं न ! सूचनाओं की वास्तविकता को जानने की आपको आवश्यकता है। फिर भी इतना तो मैं कह ही देता हूँ कि आपकी सब बातें असत्य नहीं हैं।

:2:


‘‘आपका यह कहना सत्य है कि मैंने पिछले निर्वाचनों में यह कहा था कि कांग्रेस के हाथों में हिन्दुओं के हितों की रक्षा होगी। मैंने यह भी अपने व्याख्यानों में कहा था कि पाकिस्तान नहीं बन सकता। मैंने यह भी कहा था कि हिन्दू महासभा देशद्रोहियों की संस्था है।
‘‘परन्तु यह सत्य नहीं कि मेरे पिता ठेकेदार होने से सरकार के आदमी हैं। वे भाई परमानन्दजी के अनन्य भक्तों में से हैं। यह भी सत्य नहीं है कि मैंने अपनी हिन्दू मंगेतर को छोड़कर मुसलमान लड़की से विवाह कर लिया था। बात इस प्रकार नहीं हुई। यह सत्य है कि मेरा विवाह नसीम से हुआ था और इस विवाह के कारण पिताजी के बहिष्कार से तंग आकर मैंने बंगाल सरकार की नौकरी कर ली थी।

‘‘परन्तु यह सत्य नहीं कि मैंने कलकत्ता के डायरैक्ट ऐक्शन के दिनों में मुसलमानों की सेवा तथा सहायता की है। इसके विपरीत मैं एक हिन्दू परिवार की रक्षा करता हुआ घायल हुआ था और इसी कारण मुझको वहाँ की नौकरी छोड़नी पड़ी। यही कारण है कि मेरी स्त्री नसीम मुझसे नाराज है और वह मेरे साथ आने को तैयार नहीं हुई।
‘‘यह सत्य है कि कांग्रेस ने मुझको विधानसभा का सदस्य निर्वाचित किया है, परन्तु यह सत्य नहीं कि मैंने वह सदस्यता स्वीकार कर ली है। मैं वर्तमान परिस्थिति में कांग्रेस के विचारों से सहमत नहीं हूँ और मैं उसका प्रतिनिधि बनने के लिए तैयार नहीं हूँ।’’
चेतनानन्द का साथी अभी भी अवाक् मुख उसकी ओर देख रहा था। चेतनानन्द को अपनी बात इस प्रकार स्पष्ट रूप में वर्णन करते देख, उसका मन उसके लिए प्रशंसा से भर गया। उसने एकाएक चेतनानन्द के घुटनों को हाथ लगाकर कहा, ‘‘मैं क्षमायाचना करता हूँ। मैं आपको ऐसा नहीं समझता था।’’

चेतनानन्द ने उसके हाथों को ऊपर उठाकर कहा, ‘‘अज्ञान बहुत-सी भूलों का कारण होता है। इस कारण जो मनुष्य ज्ञान-प्राप्ति में लीन रहता है, वह भूल करता हुआ भी भूल के फल का भागी नहीं होता। मेरे विषय में तो आपने बहुत-कुछ ठीक ही जाना है। केवल इतना जानना शेष था कि अब मैं कांग्रेस की विचारधारा को ठीक नहीं समझता। मैं उसमें सहयोग न देकर उसका विरोध करने की बात सोच रहा हूँ।
‘‘रही इन समाचार पत्रों की बात, इनमें सत्य बहुत कम होता है। इन पर विश्वास करना ठीक नहीं।’’
‘‘तो फिर काम कैसे चलेगा ! क्या इनके द्वारा प्रसारित असत्य के आधार पर बनी धारणाएँ घातक नहीं होंगी ?’’
इस समय देश की हत्या करने का श्रेय इन समाचार-पत्रों को ही मिलेगा। ये लोग ऐसे समाचार, जो महात्मा गांधी और उसके शिष्य-प्रशिष्यों की विचारधारा, कि हिन्दू-मुसलमान एक ही जाति के अंग हैं, को गलत सिद्ध करें, नहीं छापते। जहाँ मुसलमान मारें, वह नहीं छप सकता; जहाँ हिन्दू मारें उसे छापकर हिन्दूओं को गाली देना अपना कर्तव्य मानते हैं। परिणाम यह हो रहा है कि संसार की अधिकांश सभ्य जातियाँ हिन्दुओं से घृणा करने लगी हैं।


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